Saturday, October 3, 2020

जन्म दिवस पर विशेष


दीवारों में चिनी चीख़ों का महाप्रयाण----


समादरणीय सुधा अरोड़ा जी का संस्मरण ‘दीवारों में चिनी चीखों का महाप्रयाण’  सिर्फ़  एक संस्मरण नहीं अपितु  संस्मरण के माध्यम से सोचने विचारने के लिए वे उर्वर ज़मीन दे देती हैं। 

रचनाकार की कलम से  निकलता है जो  उसका विस्तार अनंत तक है।  सुधा जी का संस्मरण 'दीवारों में चिनी  चीखों का महाप्रयाण' शुरू होता है व्यक्तिगत रिश्तों  से और फिर रक्तबीज  बन जाता है कईं सवाल छोड़ता चला जाता है अपने पीछे  !

माँ सिर्फ़ पढ़ी लिखीं ही नहीं थीं कवितायें भी किया करती थीं उनके शब्दों में….

‘माँ ,जो शादी से पहले अपनी सधी हुई ख़ूबसूरत  हस्तलिपि में कवितायें लिखती थी ,अपनी सारी  रचनात्मकता या तो हम बहनों के लिए बचे खुचे डिज़ाइनर कपड़ों की फ्रिल वाली फ्रॉक सिलने में या सोया आलू ,गोभी और मूली के परांठे और तंदूरी लच्छेदार रोटी को उंगलियां चाट चाट कर खाने लायक बनाने में तलाश रही थी।’


माँ की अधूरी छूट गयी कवितायें उन तमाम गुमनाम स्त्रियों के दर्द की कही- अनकही दास्तां है जिन्हें  उस दौर से उस कालखंड से  गुज़रना पड़ा जहाँ स्त्री के कार्य क्षेत्र के खांचे तो फिक्स थे ही उन खांचों को बदलने या इधर -उधर करने की चाहतें दुनियावी भाग दौड़ में  कब कहाँ दफ़्न  हो जाया करतीं पता ही न चल पाता।  वे जब अपनी  मासी के जीवन के बारे में बताती है तो ऐसा नहीं लगता कि वे उस दौर की बात कर रही हैं यह दृश्य आज भी उतना ही सत्य और सामयिक लगता है बशर्ते आप किसी  ऐसे परिवार के क़रीब आये हों। जो बाहर  से सुख दिखे वह हमेशा सुख ही हो  यह ज़रूरी नहीं  उस सुख के पीछे कोई वेदना कोई बेबसी भी हो सकती है। मासी रईस परिवार में ब्याही है धन दौलत की कोई कमी भी नहीं मगर ---

‘उन दिनों नूं रानियां (बहु रानियां ) सिर्फ़ कहने को रानियां थीं ,औकात दासियों से बदतर थी। अपनी मर्ज़ी से कोई फैसला लेने की इजाज़त उन्हें नहीं थी--------मौसी के ससुराल में मौसा की जारी की गयी बड़ी सख़्त हिदायतें थीं कि मौसी दिन में चाहे अपने भाई के घर जायें या बहन के ,पर रात को उन्हें अपने घर लौटना ही है और इस हिदायत को मौसी ने ताज़िन्दगी निभाया।’

और वहां से आप कहीं भी ख़ुद  को कटा हुआ नहीं महसूस करते उस और इस कालखंड के बीच बहुत कुछ बदल गया मगर बहुत कुछ नहीं भी बदला !  जहां आपके सुख की परिभाषा दूसरे  तैयार करते हों वहां सुख

सही मायने में कैसे मिल सकता है।  

 संस्मरण और फिक्शन में शायद यही फरक होता है कि कथा में आप आसानी से सवाल खड़े कर सकते हैं लेकिन संस्मरण में या आत्मकथ्य में सच जैसा भी है हमारे सामने खड़ा होता है बिल्कुल नया नकोर सच और हम उसे नकार नहीं सकते। 

घर के क्रिया कलाप में ख़ुद  को रचा बसा देना देने वाली माँ , और अपने जीवन को अपने नए घर की तर्ज़ पर ढाल देने वाली मौसी के जीवन के संस्मरण को पढ़ते हुए प्रत्यक्ष और  अप्रत्यक्ष दोनों ध्वनियों को साफ़ -साफ़ और अलग -अलग सुना  जा सकता है। 

‘…. उस दिन की चीखें इसी कमरे के, इसी बिस्तर के आस पास की दीवारों में  भीतर तक समा गयी थीं --हमेशा हमेशा के लिए।  कभी दीवारों से बाहर नहीं आई। आज भी वे चीखें दीवारों में चिनी  हुई वही बैठी हैं ---और मेरे बिस्तर पर लेटते ही वे दीवारों से निकल -निकल कर मेरे सिरहाने  आकर बैठ जाती हैं।’


जिन  चीखों का ज़िक्र करती हैं वे उनकी कलम से  दीवारों के पार पहुँच जाती हैं। क्या उन चीखों बहुत सी स्त्रियां अपना ही स्वर नहीं सुन सकती हैं...शहर की स्त्रियां,गांव की स्त्रियां, पढ़ी लिखी स्त्रियां और बे पढ़ी स्त्रियां ,होम मेकर स्त्रियां, दफ़्तर जाती स्त्रियां!!

न जाने विवाह के समय नाम बदलने की परंपरा किस तर्क से शुरू की गयी होगी किसी ज़माने में मगर संस्मरण में वाहेगुरु सतनाम के बदलने पर,एक  सवाल जैसे फिर अपने पूरे  वजूद के साथ सामने खड़ा हो जाता है--- क्या वहीं  से शुरू हो जाता होगा औरत को  बदल डालने  का सिलसिला !!

‘माँ की शादी के सात साल बाद मौसी की शादी हुई। मौसी भी सरदारों के घर नहीं ब्याही और फेरों के वक़्त उनका नाम बदल कर संतोष रख दिया गया।  संतोष का संक्षिप्त संस्करण --तोष --नाम झट नानी के मुंह भी चढ़ गया।  बल्कि सभी मौसी को तोष या तोषी ही बुलाते।  हमें तो बहुत बाद में पता चला कि तोष मासी का पैदायशी नाम सतनाम था। तो वाहेगुरु वीणादेवी बनी और सतनाम संतोष ….’

माँ की मृत्यु के महज चार दिनों बाद मासी का गुज़र जाना----

'बीजी गहरी नींद सो गयी थी। सारी ज़िंदगी मौसा जी के कहने पर चलती रही थी। उनकी तर्जनी का इशारा समझती थी। मौसा जी की तर्जनी उठी और मौसी की आंखें नीची।  उनका कहा सर माथे लेती रही। अब बगावत पर उतर आयी थीं। उनकी शांत मुख मुद्रा कह रही थी -- अपने भैणजी --अपनी माँ --से मिलने से  अब नहीं रोक पाओगे मुझे। मैं कलकत्ता नहीं जा रही। उनसे वहीं मिलूंगी जाकर जहाँ वे गयी हैं। जहाँ से मुझे चाय देने के लिए आवाज़ नहीं दे पाओगे…’

जब वे कहती हैं कि

'मृत्यु ही दोनों बहनों के लिए मोक्ष थी'

तो एक पल को लगता  है…

क्या हम इस सच से थोड़ा भी आगे बढ़ पाए हैं ?

या फिर आज भी बहुतों के लिए मृत्यु ही आज़ादी का पर्याय है।

मृत्यु हमेशा आंखें नम कर ही देती है लेकिन यहां संस्मरण का हर वर्का और हर शब्द आंखें नम  कर देता है कभी ख़ुशी में तो कभी ग़म में। 

यह सुधा जी की ज़हीन लेखनी का असर है!!!

 

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