Saturday, October 24, 2020

रावण

सुनो!!
मैं रावण...
अब बंद कर दो मुझे जलाना
साल दर साल तुम मुझे जला रहे हो
और मैं हर बार जी उठता हूं ठंडी राख से
और जी उठता हूं पूरी ताकत से
तुम बंद करो खामखां खुश होना
कि तुमने मुझे जला डाला है
मुझे जलाने से पहले
प्रश्न करो उस सत्ता से
जिन्हें प्रसन्न करके मैंने
प्राप्त किए थे वरदान
प्रश्न करो कि क्यों तप से
हासिल हो जाना चाहिए
सब कुछ
प्रश्न करो कि
क्यों वरदान वापिस नहीं लिए जा सकते
प्रश्न करो उस सत्ता से
कि देने के बाद ले लेने की ताकत
क्यों नहीं अर्जित की उसने
बुराई पर अच्छाई की जीत के मुहावरे
अब बासी हो चुके हैं
ज़रा तह में जाओ
गढो कोई नया मुहावरा
और सामने लाओ 
न ए प्रश्न!!
मश

Thursday, October 22, 2020

कहानी

कहानी 
मां तुम मदर  इंडिया क्यों नहीं बन गई

मुझे नहीं पता कि तुम ये पत्र पढ़ पाओगी भी या नहीं मगर हर ख़त पढ़ने के लिए लिखा भी तो नहीं जाता ।                                        मेरे लिए यह ख़त  वह सब कुछ कहना सुनना चाहता है जो मैं किसी और को कह या सुना नहीं सकती । हो सकता है यह ख़त यूं ही  संदूक के किसी कोने में पड़ा रह जाए या फिर यह भी हो सकता है यह ख़त कभी छुपाने के लिए किसी किताब के अंदर रखा जाए और वहीं दबा रह जाए और फिर किसी दिन पीला ज़र्द होकर और टुकड़े-टुकड़े होकर अस्तित्व हीन हो जाए; मगर मेरे लिए इसका होना या ना होना या अपनी मंजिल तक पहुंचना उतना मायने नहीं रखता, मेरे लिए तो बस यह एक आस है ; मेरे मन का एक आईना है।
 मां हम दो ही तो थे मैं और क। मैं जानती थी कि हम दोनों को ही तुमने अपनी कोख से जन्म दिया था यह तो तुमने बहुत बहुत बाद में बताया था कि क और मेरे बीच का 6 साल का फासला ख़ाली नहीं था।  उसमें भी तुम्हारी कोख से किसी ने जन्म लिया था; क्या पता वह कौन था शायद उसे तुम्हारी कोख नसीब नहीं थी । मैं जानती हूं आज तुम बेहद उदास होगी; कौन मां होगी ऐसी जो ऐसी घटनाओं से विचलित नहीं हो जाए हर मां होती होगी मुझे नहीं पता मां तुम्हारा विचलित होना कितना क के लिए है और कितना क के किए के लिए ।मैं तुमसे सवाल नहीं करना चाहती मां तुमने तो मुझे सवाल करने का हक़  कभी दिया भी नहीं । याद करो मां जब हमने शहर बदला था तब जबकि बौजी ज़िंदा  थे और क का और मेरा स्कूल बदलने की बारी आई थी तो तुमने मेरे लिए सरकारी स्कूल चुना था और क को तुम 20 किलोमीटर दूर एक अंग्रेजी स्कूल में भेजने का ख्वाब देख रही थी ।सच कहूं मां मुझे उस दिन अच्छा नहीं लगा था। क्यों उस  दिन मुझे अच्छा नहीं लगा था यह मुझसे कोई उस दिन पूछता तो मैं बता नहीं पाती क्योंकि मैंने तो हमेशा से यही देखा था कि क के लिए तुम कैसे जान निछावर किया करती थी । मुझे भी वही सब सही लगता था । लगता था कि सब ठीक-ठाक है इसमें कुछ भी अलग नहीं है क का दुनिया में होना कितना ज़रूरी है और बाकियों का होना ना होना बराबर है।   इतनी शिद्दत से यह बात लगती थी कि मैं अपनी दुनिया में होने की बात भूल जाया करती थी। और तुम भी तो मां तुम्हें भी तो यही लगता था कि दुनिया में मेरा और तुम्हारा होना तो हो ही जाएगा लेकिन क और बौजी का होना कितनी बड़ी बात है; उसके लिए तुम कितनी कोशिश किया करती थी। सच बताना मां तुम किसके लिए दुखी हो आज क के लिए   किए के लिए। तुमने भी तो कितने दुःख सहे  मां, बौजी जब तक रहे तुमपर  आतंक करते  रहे और तुम भी सहती रही  वह सब।  तुम कितनी नार्मल थी माँ वह सब झेलते हुए।  आख़िर  तुमने बौजी के जाने के बाद भी घर की दहलीज़  पार की।  म गर बौजी के रहते तुम इतनी कमज़ोर  क्यों बनी रही।  मुझे वह दिन बहुत अच्छी तरह याद है जिस एक  दिन क के सामने और मेरे सामने बौजी ने पहली बार तुम्हारे बाल कस कर पकड़ लिए थे. क यह सब देख कर तुम्हारे साथ चिपक  गया था।  उस दिन तुमने घर की दहलीज़  क्यों नहीं पार कर  रही थी  मां ;अगर तुम उसी दिन घर की दहलीज़  लाँघ  जाती तो हो सकता है  इस कहानी का अंत कुछ और ही होता।  क उन दिनों कितना मासूम था मां  और तुम भी कितनी भोली थी। 
मैंने भी उसी दिन ही तो पहला पाठ पढ़ा था औरत और मर्द के रिश्ते का। उसी दिन पहला पाठ पढ़ा था मर्द और औरत के रिश्ते का इससे पहले तो बौजी सिर्फ बौजी थे और मां सिर्फ मां थी। लेकिन उस दिन बौजी ने जब तुम्हारे बाल खींचकर तुम्हें मारा था तो मर्द हो गए थे और तुम औरत।  तुमने बताया था कि बौजी की मार में दरअसल अत्याचार जैसा कुछ नहीं था और यह बताया था कि मर्द का मज़बूत होना ही प्रकृति है..उस दिन मेरा भी मन हुआ था ताकतवर बनने का शायद इस दर से कि कहीं कोई किसी दिन  मुझे भी  ऐसे ही .....
 हम दोनों मूकदर्शक थे।  हम कर भी क्या सकते थे।  उस दिन बौजी मुझे तो कल्पनाओं के दानव  लगे थे मां और मां पता नहीं क  को बौजी कैसे लगे थे शायद डरावने  या शायद बहुत ज्यादा शक्तिशाली; मगर मुझे तो उसके बाद बौजी कभी अच्छे नहीं लगे मेरे अंदर भी समझ नहीं थी मगर फिर भी मन में डर  और उदासी जैसी कोई चीज़  भर गयी थी।  बौजी  उसके बाद कभी अच्छे नहीं लगे उस दिन भी नहीं जिस दिन  अस्पताल में बिस्तर पर पड़े हुए खाली  आंखों से तुम्हें देख रहे थे। उनकी आंखें कितनी बड़ी बड़ी लग रही थी बड़ी और डरावनी भी।  तुम क्यों रोई थी उस दिन माँ।  मुझे तुम्हारा रोना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। सच कहो माँ  तुम बौजी के जाने से दुखी थी या तुम्हें मेरी और का की परवरिश की चिंता सताती थी।  उस दिन बौजी दुनिया छोड़कर चले गए  थे लेकिन अपना एक अंश  छोड़ गए थे। 
बहुत कुछ याद आता है माँ ---  याद है ना मां पीली ड्रेस जो मैं अन्ना  के साथ जाकर अपनी फीस के पैसे से ले आई थी और तुमने कहा था कि मैं दिनभर फैक्टरी में खटकर तुम्हें पा लूं और तुम फीस के पैसे से उड़ाओ।  जब भी मैंने वो ड्रेस पहनती थी  मुझे तुम्हारी वही बात याद आती  थी इसीलिए एक दिन मैंने उसे संदूक में  बंद कर दिया था और फिर जब उसे निकाला था तो मैं उससे  बहुत बड़ी हो चुकी थी।  मुझे उससे बड़ा हो जाना बहुत अच्छा लगा था मां क्योंकि मैं उसे कभी पहनना ही नहीं चाहती थी। क को तुमने ऐसा कुछ कभी नहीं कहा जब वह शाम को देर  से बाहर रहने लगा तो तुम डरने लग गयी थी ..यह डर तुम मुझसे बाँट लिया  करती थी लेकिन हर बार जब क बाहर से आता तो तुम उसके सामने पानी हो जाएगा करती ; तुम्हारी आवाज भी धीमी हो जाती। कभी-कभी तो तुम्हारी आंखें भी भर आती थी, जब तुम उसके सर पर हाथ फेरती और मुझे लगता मुझे भगवान ने क क्यों नहीं बनाया।  आज मैं तुम्हारे सामने एक सच बयान करना चाहती हूं  कि मेरी गुस्ताख़ियों को जब तुम माफ नहीं करती थी तो मैं  भगवान के सामने जाकर यही मानती थी कि अगले जन्म में मुझे क होना है।  क और मैं एक साथ बड़े हो रहे थे मैं 6 साल आगे और वह मुझसे 6 साल पीछे। मगर तुम्हारी नज़र में सिर्फ मैं बड़ी हो जाती थी और क हमेशा छोटा रहता था।  एक दिन जब मोहल्ले के लड़कों ने क की शिकायत की थी और वे सारे हमारे दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए थे तब भी तुमने क को निर्दोष माना था और तुम बाकियों के  घर पर झगड़ने चली गई थी; तुम्हें लगा था कि यह सारे बाकी लोग इस बिन बच्चे बाप के बच्चे के पीछे पड़ गए हैं ; क्योंकि तुम्हें हमेशा यही लगता था कि क के सर से बाप का साया उठ जाने के कारण यह सब कुछ हो रहा है।  क सचमुच बड़ा हो रहा था उसकी आवाज़ बदल रही थी ; मगर वह पढ़ाई में पिछड़ने लग गया था एक दिन जब स्कूल से बुलावा आया तो पहली बार तुमने मुझपर अपना भरोसा जताया था और कहा था कि मैं भी स्कूल चलूँ क्योंकि वहां टीचर  जो कुछ कहेगी उसे मैं ही h hug d0,समझ सकती हूं।  उस दिन पहली बार तुम्हें दुखी होते देखा था।  इससे पहले क के लिए तुम हमेशा खुश ही रहा करती थी तुम तो उसे घर का चिराग , घर का इकलौता सहारा, परिवार और समाज  में तुम्हारी इज़्ज़त का सबब ही तो जानती और मानती आई थी।  उस दिन तुम्हें पता चला था कि उन तमाम दिनों में जब तुम सोच रही थी  कि क स्कूल जा रहा है असल में  वह कहीं और जा रहा था और उसके बारे में किसी को भी पता नहीं था कि दरअसल वह जा कहाँ रहा था।  स्कूल  वालों ने कह दिया कि एक मौका और देंगे अगर ऐसा आगे चलता रहा तो वे क को स्कूल से निकाल देंगे।   उस दिन पहली बार मां तुम्हें अपनी परेशानी को अपनी मैली साड़ी के पल्लू से पोंछते  हुए देखा था।   मैं तुम्हारे साथ साथ और सर  नीचे झुका कर चल रही थी।   मेरे अंदर हिम्मत नहीं थी कि मैं तुम्हारे चेहरे की तरफ देखूं।  उस दिन मैं तुम्हारी परेशानी में परेशान नहीं थी मैं खुश थी मुझे लगा था कि आज जब क शाम के समय घर आएगा तो तुम उसे वैसे ही कुछ सुनाओगी  जैसे तुम मुझे सुनाया करती हो लेकिन तुमने वैसा कुछ नहीं किया था तुम  तो फिर पानी हो गई थी।   याद है ना मां मैंने एक  दिन स्कूल से लौटकर  तुम्हें बताया था कि मदर  इंडिया में नरगिस दत्त ने अपने बेटे  को मार दिया था तो उस दिन तुम  अजीब नज़रों  से मुझे देखती रही थी।  
‘ऐसी अशुभ  बात नहीं किया करते’  तुमने यही कहा था
‘ मां भी कभी अपने बेटे को मारती है वह भी अपने हाथ से’ तुमने यह कहा था।  
‘उसने गलत काम किया था मां’ मैंने तर्क दिया था। 
‘ जिस दिन मां बनेगी उस दिन पता चलेगा क्या सही है और क्या गलत’
क अब नहीं बचेगा तुम जान गयी हो न माँ इसीलिए तुम जीते जी ऐसा कुछ देखना नहीं चाहती; और इसीलिए तुमने ख़ुद को ख़त्म करने के लिए -----तुम तो किसी  की भी माँ हो सकती थी माँ उसकी भी जिनके साथ क और उसके दोस्तों ने ----
डॉक्टर कहते हैं कि तुम ख़तरे   से बाहर हो जाओगी और तुम कहती हो तुम जीना नहीं चाहती और क को  तुम अब  भी मरने नहीं देना चाहती।   तुम बिस्तर पर पड़ी हुई अभी भी कहती हो कि उन चार लड़कों के बीच क नहीं था जिन्होंने लड़की को उस रात भजन सिंह की दुकान के सामने से अगवा कर लिया था। दो पल को मान भी लो कि क उन चारों में नहीं था मगर वे तीन ---उनका क्या माँ उन्होंने भी ऐसा क्यों किया तुम बाकी तीनों की भी तो माँ बन सकती हो। सच्ची बताओ माँ तुम क के लिए दुखी हो या क के किये के लिए। माँ उस पहले दिन जब बौजी ने तुम्हारे बालों को भींचकर  पकड़ लिया था तो मेरे अंदर एक बड़ा सा डर पैदा हो गया था, तुम्हारे अंदर सब कुछ ख़ाली था किसी  बड़े गहरे और सूखे कुँऐं जैसा ख़ाली  और क के अंदर डर उसी दिन मर गया था।  माँ  सब कुछ उसी दिन हो गया था और उसके बाद सब कुछ रक्तबीज  होता चला गया था !
 बस इतना ही.
 इतिश्री !
 

Saturday, October 3, 2020

जन्म दिवस पर विशेष


दीवारों में चिनी चीख़ों का महाप्रयाण----


समादरणीय सुधा अरोड़ा जी का संस्मरण ‘दीवारों में चिनी चीखों का महाप्रयाण’  सिर्फ़  एक संस्मरण नहीं अपितु  संस्मरण के माध्यम से सोचने विचारने के लिए वे उर्वर ज़मीन दे देती हैं। 

रचनाकार की कलम से  निकलता है जो  उसका विस्तार अनंत तक है।  सुधा जी का संस्मरण 'दीवारों में चिनी  चीखों का महाप्रयाण' शुरू होता है व्यक्तिगत रिश्तों  से और फिर रक्तबीज  बन जाता है कईं सवाल छोड़ता चला जाता है अपने पीछे  !

माँ सिर्फ़ पढ़ी लिखीं ही नहीं थीं कवितायें भी किया करती थीं उनके शब्दों में….

‘माँ ,जो शादी से पहले अपनी सधी हुई ख़ूबसूरत  हस्तलिपि में कवितायें लिखती थी ,अपनी सारी  रचनात्मकता या तो हम बहनों के लिए बचे खुचे डिज़ाइनर कपड़ों की फ्रिल वाली फ्रॉक सिलने में या सोया आलू ,गोभी और मूली के परांठे और तंदूरी लच्छेदार रोटी को उंगलियां चाट चाट कर खाने लायक बनाने में तलाश रही थी।’


माँ की अधूरी छूट गयी कवितायें उन तमाम गुमनाम स्त्रियों के दर्द की कही- अनकही दास्तां है जिन्हें  उस दौर से उस कालखंड से  गुज़रना पड़ा जहाँ स्त्री के कार्य क्षेत्र के खांचे तो फिक्स थे ही उन खांचों को बदलने या इधर -उधर करने की चाहतें दुनियावी भाग दौड़ में  कब कहाँ दफ़्न  हो जाया करतीं पता ही न चल पाता।  वे जब अपनी  मासी के जीवन के बारे में बताती है तो ऐसा नहीं लगता कि वे उस दौर की बात कर रही हैं यह दृश्य आज भी उतना ही सत्य और सामयिक लगता है बशर्ते आप किसी  ऐसे परिवार के क़रीब आये हों। जो बाहर  से सुख दिखे वह हमेशा सुख ही हो  यह ज़रूरी नहीं  उस सुख के पीछे कोई वेदना कोई बेबसी भी हो सकती है। मासी रईस परिवार में ब्याही है धन दौलत की कोई कमी भी नहीं मगर ---

‘उन दिनों नूं रानियां (बहु रानियां ) सिर्फ़ कहने को रानियां थीं ,औकात दासियों से बदतर थी। अपनी मर्ज़ी से कोई फैसला लेने की इजाज़त उन्हें नहीं थी--------मौसी के ससुराल में मौसा की जारी की गयी बड़ी सख़्त हिदायतें थीं कि मौसी दिन में चाहे अपने भाई के घर जायें या बहन के ,पर रात को उन्हें अपने घर लौटना ही है और इस हिदायत को मौसी ने ताज़िन्दगी निभाया।’

और वहां से आप कहीं भी ख़ुद  को कटा हुआ नहीं महसूस करते उस और इस कालखंड के बीच बहुत कुछ बदल गया मगर बहुत कुछ नहीं भी बदला !  जहां आपके सुख की परिभाषा दूसरे  तैयार करते हों वहां सुख

सही मायने में कैसे मिल सकता है।  

 संस्मरण और फिक्शन में शायद यही फरक होता है कि कथा में आप आसानी से सवाल खड़े कर सकते हैं लेकिन संस्मरण में या आत्मकथ्य में सच जैसा भी है हमारे सामने खड़ा होता है बिल्कुल नया नकोर सच और हम उसे नकार नहीं सकते। 

घर के क्रिया कलाप में ख़ुद  को रचा बसा देना देने वाली माँ , और अपने जीवन को अपने नए घर की तर्ज़ पर ढाल देने वाली मौसी के जीवन के संस्मरण को पढ़ते हुए प्रत्यक्ष और  अप्रत्यक्ष दोनों ध्वनियों को साफ़ -साफ़ और अलग -अलग सुना  जा सकता है। 

‘…. उस दिन की चीखें इसी कमरे के, इसी बिस्तर के आस पास की दीवारों में  भीतर तक समा गयी थीं --हमेशा हमेशा के लिए।  कभी दीवारों से बाहर नहीं आई। आज भी वे चीखें दीवारों में चिनी  हुई वही बैठी हैं ---और मेरे बिस्तर पर लेटते ही वे दीवारों से निकल -निकल कर मेरे सिरहाने  आकर बैठ जाती हैं।’


जिन  चीखों का ज़िक्र करती हैं वे उनकी कलम से  दीवारों के पार पहुँच जाती हैं। क्या उन चीखों बहुत सी स्त्रियां अपना ही स्वर नहीं सुन सकती हैं...शहर की स्त्रियां,गांव की स्त्रियां, पढ़ी लिखी स्त्रियां और बे पढ़ी स्त्रियां ,होम मेकर स्त्रियां, दफ़्तर जाती स्त्रियां!!

न जाने विवाह के समय नाम बदलने की परंपरा किस तर्क से शुरू की गयी होगी किसी ज़माने में मगर संस्मरण में वाहेगुरु सतनाम के बदलने पर,एक  सवाल जैसे फिर अपने पूरे  वजूद के साथ सामने खड़ा हो जाता है--- क्या वहीं  से शुरू हो जाता होगा औरत को  बदल डालने  का सिलसिला !!

‘माँ की शादी के सात साल बाद मौसी की शादी हुई। मौसी भी सरदारों के घर नहीं ब्याही और फेरों के वक़्त उनका नाम बदल कर संतोष रख दिया गया।  संतोष का संक्षिप्त संस्करण --तोष --नाम झट नानी के मुंह भी चढ़ गया।  बल्कि सभी मौसी को तोष या तोषी ही बुलाते।  हमें तो बहुत बाद में पता चला कि तोष मासी का पैदायशी नाम सतनाम था। तो वाहेगुरु वीणादेवी बनी और सतनाम संतोष ….’

माँ की मृत्यु के महज चार दिनों बाद मासी का गुज़र जाना----

'बीजी गहरी नींद सो गयी थी। सारी ज़िंदगी मौसा जी के कहने पर चलती रही थी। उनकी तर्जनी का इशारा समझती थी। मौसा जी की तर्जनी उठी और मौसी की आंखें नीची।  उनका कहा सर माथे लेती रही। अब बगावत पर उतर आयी थीं। उनकी शांत मुख मुद्रा कह रही थी -- अपने भैणजी --अपनी माँ --से मिलने से  अब नहीं रोक पाओगे मुझे। मैं कलकत्ता नहीं जा रही। उनसे वहीं मिलूंगी जाकर जहाँ वे गयी हैं। जहाँ से मुझे चाय देने के लिए आवाज़ नहीं दे पाओगे…’

जब वे कहती हैं कि

'मृत्यु ही दोनों बहनों के लिए मोक्ष थी'

तो एक पल को लगता  है…

क्या हम इस सच से थोड़ा भी आगे बढ़ पाए हैं ?

या फिर आज भी बहुतों के लिए मृत्यु ही आज़ादी का पर्याय है।

मृत्यु हमेशा आंखें नम कर ही देती है लेकिन यहां संस्मरण का हर वर्का और हर शब्द आंखें नम  कर देता है कभी ख़ुशी में तो कभी ग़म में। 

यह सुधा जी की ज़हीन लेखनी का असर है!!!

 

Friday, October 2, 2020

बापू

बापू को याद करते हुए---
सुनो!!
क्या तुम्हें नहीं लगा कभी,
कि तुम्हें थोड़ा कम महात्मा होना चाहिए था!
कि तुम्हें तनिक कम पूजनीय होना था,
क्या तुम्हें नहीं लगा कभी कि महात्मा और पूजनीय
पत्थर बन जाया करते हैं,
या बस विषय बन कर रह जाते हैं,
किसी भी मौके पर और हर मौके पर,
किसी भी चौराहे पर,
कभी सेमीनार में,
तो कभी वेबीनार में,
कभी किताबों में तो,
कभी अख़बारों में!
अगर तुम तस्वीरों से ऊपर उठना चाहते हो तो
बाहर निकलो बापू विषय से
कुछ बोलो
कुछ तर्क वितर्क करो
फिर से करो कोई दांडी
या कोई चम्पारण!!!
मश