Saturday, February 22, 2020

हर रोज़

हर रोज़ मैं टुकड़े टुकड़े हो जाती हूं सुबह सुबह
एक टुकड़ा घर के कोनों में
एक और  बच्चे के हिस्से में
एक दूसरा दफ़्तर की मेज़ पर
एक टुकड़ा पार्टनर के लिए
एक मां के पास
एक कभी किसी ग्रॉसरी की दूकान तो कभी किसी सब्जी की दूकान पर
एक कभी अपने लिए बिंदी और चूड़ी की दूकान पर कुछ तलाशता हुआ
फिर शाम को वे सारे टुकड़े समेट कर मैं वापिस कभी रजाई और चादर में दुबक कर नींद के आगोश में चली जाती हूं।

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